जीवन का धागा ऐसा उलझा
लगे कि बस अब सुलझा और तब सुलझा
डोर पकड़ एक रोज चल पड़ा जुलाहा
ले संकल्प सुलझाने को उलझन सारी
चार पग थागा सुलझाना क्या काम है बड़ा
सोच ये निकला वो खोजने दूसरा सिरा
दो पग चला तो समझा की कुछ और है इसकी लम्बाई
कुछ और चला तो समझा के अब नजर मेरी है ज़र आई
कुछ और चला तो हैरान था कुछ बात न उसको समझ आई
चार पग थागा, द्रौपदी का चीर कैसे बन आई
महसूस हुआ के इस धागे का छोर न ऐसे मिल पाएगा
वर्ष-वर्षांतर लोक-परलोक की सैर ये कराएगा
ये क्या? हर कुछ दूर में इस पर गिरहे बंधी हुई थी
कुछ गहरी कुछ छोटी मानो पहेलियाँ बनी हुई थी
पूछा सबसे हार मान गए सब ज्ञानी-विज्ञानी
अब थक चुका था कौन समझे जुलाहे की परेशानी
जा बैठा पीपल के नीचे आँखे बंद करके
मन मलिन, दिमाग खाली, गहरी सांसे भरके
न जाने कब हुआ यूँ कि जुलाहा कहीं खो गया
मन, न देह, सांस गुम, सिर्फ “वो” ही वहां रह गया
सिर्फ “वो” ही वहां रह गया तो गिरहे कहाँ रह गयी?
वाह! देखो थांगे का सिरा ढूंढने में जुलाहे को मंजिल मिल गयी